ना जाने कब और कैसे यूंही तन्हा तन्हाई में , तन्हाइयों से बतियाते तन्हाइयां भली सी लगने लगीं चिड़ियों की मीठी चहचहाहट से कभी गुनगुना उठता था मन मेरा अब शोर सी कानों को चुभने ल...
जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए पथरीले रास्ते खुशबुओं से भर गए रीते नैनों के दामन सपनों से संवर गए होठों पर मुस्कुराहटें खिलखिलाने लगीं हँसी भी अब थोड़...
काँच के टुकड़ों की महीन किरकिरी सा आंखों में चुभता विश्वास हृदय पटल पर गर्म लावे सा उबलता विश्वास सुर्ख नम होंठों पर रक्त बूंदों सा दहकता विश्वास टूटी सांसों को आस की सांस ...
उम्दा सृजन।
ReplyDeleteसुंदर आकर्षक भाव।
मेरे ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
आभार। आपसे एक बार फिर जुड़कर खुशी हुई
ReplyDeleteसादर अभिवादन।