Posts

Showing posts from 2018

मितवा

जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए पथरीले रास्ते खुशबुओं से भर गए रीते नैनों के दामन सपनों से संवर गए होठों पर मुस्कुराहटें खिलखिलाने लगीं हँसी भी अब थोड़ा चुलबुलाने लगी ना जाने कब तुम जहाँ हो गए जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए बारिश की बूंदें शबनम सी हुईं दर्पण की नजरें भी चंचल सी हुईं खुद की छुअन चौंकाने लगी पायल भी कुछ ओर धुन गाने लगी जाने कैसे सुर सभी सधे हो गए जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए चैन हाथ झटककर चलता बना नींद का संग भी अब दुर्लभ बना चांद तारों से मन बतियाने लगा कभी गाने कभी सकपकाने लगा बस यूं ही सबसे कतराने लगे हम अपने से ही शरमाने लगे जाने कब अपने से बेगाने हो गए जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए © Puja Puja

मातृ दिवस

आज मातृ दिवस है माँ आज तेरा महिमा मंडन होगा कहीं श्रद्धा पुष्प चढ़ेंगे, कहीं वंदन होगा आज कई पन्ने रंगे जाएंगे कई गीत और कथानक रचे जाएंगे शब्दों के आवरण से तेरा गुणगान होगा पर ---- क्या किसी को तेरे मर्म की पीड़ा का भान होगा ? जब तू निसार कर अपना लाल हज़ार आंसू पीती है अपनी जायी की पीड़ा पर मन ही मन कलपती है और टुकड़ा - टुकड़ा मरती है जब अपनों से बिसराई जाती है अपनों से ठुकराई जाती है उस विकल वेदना को सहकर मां तू मुस्काये जाती है भूल के सब दोनों हाथों से आशीष लुटाये जाती है विपदा आती जब अपनों पर तू खुद पर झेले जाती है औकात नहीं मेरे शब्दों की जो तेरा बखान करें बस इतना चाहूँ मां ! तुझसे जगमग मेरा जहान रहे ।। © Puja Puja

चलो बंद बंद खेलते हैं

सलीके के मुखौटों के पीछे दम घुटने लगा है तहज़ीब के कपड़ों में बदन अकड़ने लगा है भलमनसाहत का बोझ असह्य होने लगा है सदाचार भी कदम कदम पर ठिठकने लगा है अच्छाई की बोरियत से बाहर निकलते हैं चलो बंद बंद खेलते हैं....... कुछ बेमतलब नारे लिखने होंगे कुछ बैनर, झंडे पकड़ने होंगे जी भर गला फाड़ चिल्लायेंगे छलनी सड़कों को और छलनी करते जायेंगे दुकानों को लूटेंगें, कुछ तोड़ फोड़ भी करेंगे रेल की पटरियों पर जोर आजमाएंगे आते जाते वाहनों की होली जलायेंगे, होली के रंगों से मन भर गया है अब लाल रंग से जीवन को रोमांचक बनायेंगें अच्छाई की बोरियत से बाहर निकलते हैं चलो बंद बंद खेलते हैं....... मुद्दों का क्या है, एक ढूंढो हज़ार मिलेंगे अब खेतों में फसलें नहीं होतीं जनाब फार्महाउसों में मुद्दें उपजते हैं एक बार नजर घुमाइये, मुद्दे ही मुद्दे लहलहाते दिखेंगे धर्म, जाति, आरक्षण, वेतन फिल्में, समारोह, साहित्य और चिंतन जानवर, बाबा, नेता और संत या फिर माफिया और मजनूओं का अंत जिस पर भी मन हो मुद्दा उठा लेते हैं अच्छाई की बोरियत से बाहर निकलते हैं चलो बंद बंद खेलते हैं....... अरे जनाब ! परिणाम की म

चांद

Image
चपल चांद की चंचल चन्द्रिकायें चमक रही चहुँओर चित्त चुराये चोरी चोरी चिहुंके चकवी संग चकोर     -- Puja Puja

विश्वास

काँच के टुकड़ों की महीन किरकिरी सा आंखों में चुभता विश्वास हृदय पटल पर गर्म लावे सा उबलता विश्वास सुर्ख नम होंठों पर रक्त बूंदों सा दहकता विश्वास टूटी सांसों को आस की सांस देता विश्वास बैचेनी को थपकी देकर सुलाता विश्वास अपनों में परायों के होने का अहसास कराता विश्वास कभी अंधकार के गर्त में गिराता विश्वास कभी अंगुली थाम उजाले की ओर ले जाता विश्वास सागर सा गहरा गगन सा विशाल अगले ही पल क्षण भंगुर सा होता विश्वास जो टूटे को जोड़ दे और जुड़े को पल में तोड़ दे ऐसी दोधारी तलवार सा धारदार विश्वास कभी विश्वास में होता था विश्व का वास आज--- विश्वास में हो रहा विष का वास अपनी ही परछाईं यहां तोड़ रही विश्वास गर्व होता था हमें खुद के विश्वास पर अब खुद ही ढो रहे हैं विश्वास की लाश  ।। ©Puja Puja

तनहाई

ना जाने कब और कैसे यूंही तन्हा तन्हाई में , तन्हाइयों से बतियाते तन्हाइयां भली सी लगने लगीं चिड़ियों की मीठी चहचहाहट से कभी गुनगुना उठता था मन मेरा अब शोर सी कानों को चुभने लगी और तन्हाइयां भली सी लगने लगीं रंगीन ख्वाबों से सराबोर आंखें नित नए सपनों की तलाश में जो रात का पीछा किया करती थीं अब रातों से खुद ही पीछा छुड़ाने सी लगी और तन्हाइयां भली सी लगने लगीं आईने के बोल दिल में गुरुर भरते थे कभी तेरे इश्क़ से हम सजते संवरते थे कभी अब अक्स खुद के ही डराने लगे इश्क की बात से ही घबराने लगे उदास शामें मन को भाने सी लगीं और तन्हाइयां भली सी लगने लगीं पतझड़ के मौसम लुभाने लगे अश्क आंखों से यारी निभाने लगे चांदनी भी अंगार बरसाने लगी अब तेरी आहट भी बेगानी सी लगने लगी और तन्हाइयां भली सी लगने लगी ना जाने कब और कैसे यूंही तन्हा तन्हाई में, तन्हाइयों से बतियाते तन्हाइयां भली सी लगने लगी..... © Puja Puja