घावों से रिसते दर्द की तरह रिश्ते भी रिसने लगे हैं जिंदगी के पोर पोर से चेहरे पे नए चेहरे नजर आने लगे हैं मिथ्या की परतों में रिश्ते धुंधलाने लगे हैं । रिश्तों के मायने अब कुछ के कुछ हो गए हम नहीं अब मम, अहम परम ब्रह्म हो गए धन,दर्प की आंच में रिश्ते भी भस्म हो गए । कंधो को अपनों का हाथ महसूस नहीं होता राहों पे अपनों के कदमों का साथ नहीं होता। नजरें भी अजनबियत से भरी हो गई दिलों की मिठास भी कसैली सी हो गई । गर्म हवा के थपेड़ों से रिश्ते झुलसाने लगे हैं डर के छालों से दिलों में दंश चुभोने लगे हैं जितना भी थामो रेत से फिसले जाते हैं रिश्ते छलावा से पल पल छलते जाते हैं रिश्ते रिसते हुए रिश्तों को थामने की नाकाम सी पुरजोर कोशिशों से व्यथित जिंदगी रिसती ही जा रही है अपने ही हाथों से।। __ Pujapuja
वाह. बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत आभार सुधा जी
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वाह बहुत ख़ूब...👌👌👌👏👏👏
ReplyDeleteशुक्रिया अमित जी
Deleteआभारी हूं
वाह !!! बेहद शानदार रचना ...सुंदर रचना
ReplyDeleteआभार नीतू जी
Deleteआपकी सराहना से आत्मबल बढ़ा है
😊😊
वाह्हह्ह...सुंदर शब्द संयोजन...👌
ReplyDeleteश्वेता जी आपकी सराहना के लिए दिल से आभार 😘😘
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