ना जाने कब और कैसे यूंही तन्हा तन्हाई में , तन्हाइयों से बतियाते तन्हाइयां भली सी लगने लगीं चिड़ियों की मीठी चहचहाहट से कभी गुनगुना उठता था मन मेरा अब शोर सी कानों को चुभने ल...
जिस पल तुम मीत से मितवा हुए हम खुद ही खुद से अगवा हो गए पथरीले रास्ते खुशबुओं से भर गए रीते नैनों के दामन सपनों से संवर गए होठों पर मुस्कुराहटें खिलखिलाने लगीं हँसी भी अब थोड़...
काँच के टुकड़ों की महीन किरकिरी सा आंखों में चुभता विश्वास हृदय पटल पर गर्म लावे सा उबलता विश्वास सुर्ख नम होंठों पर रक्त बूंदों सा दहकता विश्वास टूटी सांसों को आस की सांस ...
वाह. बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत आभार सुधा जी
Delete😘😘
वाह !!! बेहद शानदार रचना ...सुंदर रचना
ReplyDeleteआभार नीतू जी
Deleteआपकी सराहना से आत्मबल बढ़ा है
😊😊
वाह्हह्ह...सुंदर शब्द संयोजन...👌
ReplyDeleteश्वेता जी आपकी सराहना के लिए दिल से आभार 😘😘
Deleteशुक्रिया अमित जी
ReplyDeleteआभारी हूं